भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन गुलाब की पँखुरी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
सजनी, देखो
रंग हवा में
अभी-अभी उड़कर आया इस ओर सुआ है
बॉटलब्रश के फूल लाल
दहका सूरज है
बौराई है छाँव
रचा रितु ने अचरज है
दिन गुलाब की
पँखुरी
हँसती हुई धूप है - लगता तुमने इन्हें छुआ है
रंग हमारी साँसों में भी है
चुटकी-भर
आओ, रँगें उसी से
इक-दूजे को जी-भर
बिना देह का
देव जगा है
मौसम का मिजाज़ भी तो रंगीन हुआ है
आसमान में
मुट्ठी-भर गुलाल बिखराएँ
'जित देखो तित लाल'
करें हम सभी दिशाएँ
जो डूबेंगे लाली में
वेही उबरेंगे
सजनी मानो, रंगपर्व की यही दुआ है