भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन ढले कंगूरों पर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अनमनी हवाएँ हैं डूबते खजूरों पर
            
एक व्यथा उग आई
ताल के किनारों पर
परछाईं पसर गई
जलकुईं-सिवारों पर
 
मटमैला धुआँ उठा गाँव-गली-घूरों पर
 
गंधहीन साँसों का
एक दिवस और कटा
लंबी इस यात्रा का
थोड़ा दुख और बँटा
 
टिक गईं थकी यादें दिन-ढले कँगूरों पर
 
उतर आईं सडकों पर
रेशम की मीनारें
डरकर खामोश हुईं
खंडहर की दीवारें
 
रंगमहल के सपने लद गए मजूरों पर