भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन ढले की बारिश / धर्मवीर भारती
Kavita Kosh से
बारिश दिन ढले की
हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम
तुम हो
और,
और वही बलखाई मुद्रा
कोमल शंखवाले गले की
वही झुकी-मुँदी पलक सीपी में खाता हुआ पछाड़
बेज़बान समन्दर
अन्दर
एक टूटा जलयान
थकी लहरों से पूछता है पता
दूर- पीछे छूटे प्रवालद्वीप का
बांधूंगा नहीं
सिर्फ़ काँपती उंगलियों से छू लूँ तुम्हें
जाने कौन लहरें ले आई हैं
जाने कौन लहरें वापिस बहा ले जाएंगी
मेरी इस रेतीली वेला पर
एक और छाप छूट जाएगी
आने की, रुकने की, चलने की
इस उदास बारिश की
पास-पास चुप बैठे
गुपचुप दिन ढलने की!