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दिन दिन और दिन / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
ये अनमने दिन !
कुम्हार के चाक पर घूमते
मिट्टी के लौंदे से
अधबने दिन !
पार्क की बैंच पर सिर टिकाए
सूखे पत्तों से लाचार पड़े हैं दिन !
पत्ती-पत्ती हो बिखर गए
अधलिखे काग़ज़ की चिंदियों से दिन !
ये अनमने दिन !
कितने-कितने रंगों के हैं दिन !
दिनों के हैं कितने-कितने रंग !!
हर दिन को कल में
बदलते जा रहे हैं दिन !
आने वाले कल की खुशबू से
महक रहे हैं दिन !