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दिन पर दिन बीत रहे, स्तब्ध बैठा रहता मैं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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दिन पर दिन बीत रहे, स्तब्ध बैठा रहता मैं;
मन में सेाचा करता हूं
जीवन का दान कितना और बाकी है
चुकाना संचय अपचय का?
मेरे अयत्न से कितना हो गया क्षय!
पाया क्या प्राप्य अपना मैंने ?
दिया क्या जो देना था?
क्या बचा है शेष पाथेय मेरा?
आये थे जो पास मेरे
चले गये थे जो दूर मुझ से
उनका स्पर्श कहाँ रह गया मेरे किस सुर में?
अन्य मनस्कता से किस-किस को पहचाना नहीं मैंेने?
विदाई की पदध्वनि प्राणों वृथा ही बज रही आज।
इतना भी तो ज्ञात नहीं-
कौन कब करके क्षमा, कुछ कहे बिना
चला गया है।
भूल की हो मैंने यदि उसके प्रति,
क्षोभ रखेगा क्या तब भी वह
जब न रहूंगा मैं ?
कितने सूत्र छिन्न हुए जीवन के आस्तरणमय,
उन्हें जोड़ने का अब न रहा कुछ भी समय।
जीवन के शेष प्रान्त में प्रेम है असीम जो
असम्मान मेरा कोई भी
क्षत-चिह्न अंकित करे उस पर तो
मेरी मृत्यु के हाथ ला दें आरोग्य उसे,
सोचा करता हूं बार-बार यही एक बात मैं।

‘उदयन’
फागुन, 1997