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दिन भर के भूखे को जैसे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

दिन भर के भूखे को जैसे
मिल जाये पूड़ी तरकारी
ऐसी मादक देह तुम्हारी

वही पुराना
जर्जर रिक्शा
खींच-खींच कर मैंने जाना
नरक यही है
कड़ी धूप में
सर पर भारी बोझ उठाना

पर कुछ पल का
स्वर्ग हमारा
सब नरकों पर पड़ता भारी

नैतिकता तो
मध्यवर्ग की
सामाजिक मज़बूरी भर है
उच्चवर्ग या
निम्नवर्ग को
इस समाज की कहाँ फ़िकर है

रहता है तन
पाक हमेशा
जाने है यह दुनिया सारी

मन दिन भर
सबकुछ सहता है
आँसू पीकर चुप रहता है
मन की ज्वाला भस्म न कर दे
अपनी दुनिया
डर लगता है

इसीलिये
ये ज्वाला हमने
तेरे चंदन-तन पर वारी