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दिन भर जलना तपना, ढलना / ज्योत्स्ना शर्मा

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दिन भर जलना तपना, ढलना
होते नहीं निराश
कितना कठिन समय हो
रवि तुम! कब लेते अवकाश!

कुहर, तुहिन कण, बरखा, बादल
मिलकर करें प्रहार
अम्बर के एकाकी योद्धा
कभी न मानो हार!
अवनि से आकाश तलक दो
सबको तेज, प्रकाश!

धुन के पक्के, जान गए सब
अकड़ू हो थोड़े
भेजा करते हो सतरंगी
किरणों के घोड़े
जग उजियारा करें, मिटा दें
तम को रहे तलाश!

उलझन ले हम आए दिनकर
पास तुम्हारे हैं
मानव-मन में दानवता ने
पाँव पसारे हैं
जुगत बताओ हमको, इसका
कैसे करें विनाश!
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