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दिन में ही अपने जिस्म के साये से डर चले / अमरेन्द्र
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दिन में ही अपने जिस्म के साये से डर चले
अपना ही अपने हाथों से हम खून कर चले
आँखों में किसी की भी न थे आँसू के कतरे
जब खून से लथपथ हुए हम तर-ब-तर चले
ये वाकया है मेरे सफर का अजीब ही
देहरी से नहीं पार हुए, उम्र भर चले
अब सामने है धूप सचाई की बेहिसाब
सारे हसीं वो ख्वाब के मंजर उतर चले
जंगल में जशन होने की वह बात कह गया
जैसे ही हुई शाम सभी उठ के घर चले
देखा नहीं 'अमरेन्द्र'-सा दुनिया में कोई और
बदनामियों के बीच भी वह बेखबर चले ।