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दिन रात चले फिर भी पाया न सहारा है / रंजना वर्मा

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दिन रात चले फिर भी पाया न सहारा है
है प्यास बहुत गहरी जल सिन्धु का खारा है

बेताब समन्दर है फिर ज्वार उठाने को
सहमी है लहर उस से जो दूर किनारा है

है चाँद बहुत गुमसुम रूठी हैं सर्द किरनें
घिरता न अँधेरा है खिलता न सितारा है

पत्थर का चीर सीना जज़्बात बह रहे हैं
समझो न इसे झरना उल्फ़त की ये धारा है

हम छोड़ चले आये दुनियाँ की सभी खुशियाँ
तू साथ हमारे है तो गम भी दुलारा है

दुनियाँ है बड़ी जालिम सच्ची है न हमदर्दी
कहने को हजारों हैं कोई न हमारा है

दिल इश्क़ की राहों पे भटका है किया बरसों
है गैर नहीं कोई ये खुद से ही हारा है