दिन वसन्त के / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
कैसी अनोखी यह बात है?
दृश्यपट बदल गया आप-से आप ही!
अभिनय-सा हो रहा नूतन अभिव्यंजन का
परिवर्त्तन लाने का।
दमकते ‘अड़ाना’ के यौवन-सा,
‘टोड़ी’ की उदासी को दूर कर,
चेतना को उकसाता।
कामधेनु धरा पसुरा गई-
देखकर वसन्त-रूपी बछड़े को!
बिजली-सी दौड़ गई?
शान-चढ़ा मार्गण पर अनंग के।
कंटकित पौदों के अंग-अंग,
कंटकित योनि-छत्र, कंटकित योनि-चक्र।
कंटकित पर्णहरति पेड़ों के लिंग-सूत्र,
कंटकित नग्नबीज दूर तक!
कंटकित फूलों की योनि-नीलकाओं के गुप्तबीज,
अंकित मुस्कान की रेखा से कंटकित पत्रवृन्त,
वृन्तपाद, धार, शिखर, प्रखपत्र!
गन्ध-मकरन्द की तूलिका से छन्द रच,
दान कर भौंरों की मण्डल को परागकण,
कोकिल को प´्चम की मीड़-तान-मुरकियाँ,
गन्ध से व्याप्त कर दिशाओं को,
रले हुए मोतियों के हार-सी,
मेरी गदराई अमराई में रंग में बोरी-सी,
महमहाती आम की नई खिली मंजरी,
जर्दा गुलाबखास, बेगम पसन्द की!