भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिये की माँग / हरिवंशराय बच्‍चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रक्‍त मेरा माँगते हैं।

कौन?

वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।


बड़ा अचरज हुया

किन्‍तु विवेक बोला:

आज अचरज की जगह दुनिया नहरं है,

जो असंभव को और संभव को विभाजित कर रही थी

रेख अब वह मिट रही है।

आँख फाड़ों और देखो

नग्‍न-निमर्म सामने जो आज आया।

रक्‍त मेरा माँगते हैं।

कौन?

वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।


वक्र भौंहें हुईं

किन्‍तु वि‍वेक बोला:

क्रोध ने कोई समस्‍या हल कभी की?

दीप चकताचूर होकर भूमि के ऊपर पड़ा है,

तेल मिट्टी सोख़ती है,

वर्तिका मुँह किए काला,

बोल तेरी आँख को यह चित्र भाया?

रक्‍त मेरा माँगते हैं।

कौन?

वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।


मन बड़ा ही दुखी,

किन्‍तु विवेक चुप है।

भाग्‍य-चक्र में पड़ा कितना कि मिट्टी से दिया हो,

लाख आँसु के कणों का सत्‍त कण भर स्‍नेह ािेता,

वर्तिका में हृदय तंतु बटे गए थे,

प्राण ही जलता रहा है।

हाय, पावस की निशा में, दीप, तुमने क्‍या सुनाया?

रक्‍त मेरा माँगते हैं।

कौन?

वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।


स्‍नेह सब कुछ दान,

मैंने क्‍या बचाया?

एक अंतर्दाह, चाहूँ तो कभी गल-पिघल पाऊँ।

क्‍या बदा था, अंत में मैं रक्‍त के आँसू बहाऊँ?

माँग पूरी कर चुका हूँ,

रिक्‍त दीपक भर चुका हूँ,

है मुझे संतोष मैंने आज यह ऋण भी चुकाया।

रक्‍त मेरा माँगते हैं।

कौन?

वे ही दीप जिनको स्‍नेह से मैंने जगाया।