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दिये तीरगी जब मिटाने लगे/ सर्वत एम जमाल
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दिए तीरगी जब मिटाने लगे
अचानक हवा के निशाने लगे
जो सूरज उठा रोशनी बाँटने
तो सब रात के गीत गाने लगे
हमें धुन कि मंज़िल तो आए क़रीब
सफ़र की ये कोशिश ठिकाने लगे
जो कल तक थे हवा के मुहाफ़िज़ यहाँ
वही आज चेहरे छुपाने लगे
ये शीशे ये ज़र्रे तो बेजान थे
मगर धूप में जगमगाने लगे
फ़रिश्ता नहीं हूँ यही ख़ौफ़ है
ख़ुदा, जाने कब आजमाने लगे
ग़ज़ल तुमको पढ़नी थी सर्वत मगर
तुम आज अपना दुखड़ा सुनाने लगे