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दिलवाड़ा और ताजमहल / रमेश कौशिक

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सदियों पहले
जब नहीं थीं क्रेनें ट्रक
इन किलों, मक़बरों
मन्दिर, मस्जिद, मीनारों के लिए
भला ढोया होगा
किसने पत्थर
मकरानों से

इन्सानों से लेकर
गधे, ऊँट. खच्चर, बैलों औ हाथी तक
आख़िर कोई तो होगा ही

किन्तु कहीं भी
इस दुनिया में
बोझा ढोने वाले पशु की
या मनु की
मूर्ति उकेरी नहीं गई है

दिलवाड़ा का मन्दिर
बस, अपवाद रहा है
दूर खदानों से लेकर
अबुर्द पर्वत के दुर्गम शिखरों तक
जिन गजराजों ने
था मन्दिर का मरमर ढोया
तीर्थंकर के साथ प्रतिष्ठित
मूर्ति वहाँ पर है
उन सब की

एक बना था
ताजमहल
जहाँ
बाँह काट दी थी शिल्पी को