दिलो-नज़र में तिरे रूप को बसाता हुआ / इरशाद खान सिकंदर
दिलो-नज़र में तिरे रूप को बसाता हुआ
तिरी गली से गुज़रता हूँ जगमगाता हुआ
ग़ज़ल के फूल मिरे ज़ेहन में महकते हुए
तिरा खयाल मुझे रातभर जगाता हुआ
वो बारगाहे-अदब है अकीदतों की जगह
मै उस गली से क्यों गुजरूँगा खाक उड़ाता हुआ
मिरे जुनूं से हरीफों के पांव उखड़ते हुए
मैं जान देने के चक्कर में जाँ बचाता हुआ
किसे मिला तिरे कदमों में जान दे देना
मैं सुर्खरू हुआ चाहत के काम आता हुआ
तुम्हारी याद मुझे इस तरह से लगती है
कोई चराग़ अँधेरे में झिलमिलाता हुआ
हथेलियों की लकीरें मुझे परखती हुई
मैं हर क़दम पे मुक़द्दर को आज़माता हुआ
जवाब क्यों हैं सभी खामुशी में दुबके हुए
सवाल ज़ेहन के आंगन में आता-जाता हुआ
मिरे खिलाफ़ सभी साज़िशें रचीं जिसने
वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ
हमारी सम्त लगातार वार होते हुए
उसे बचाने में अक्सर मैं चोट खाता हुआ