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दिल्ली-1984 / गिरधर राठी
Kavita Kosh से
क्या तुमने देखे धू-धू करते मकान?
हाँ मैं ने देखे ।
और शहर पर मंडराता धुआँ?
हाँ ।
क्या तुमने सुना शोर?
हाँ मैं ने सुना ।
भागते हुए हुजूम?
हाँ ।
और वे जो भाग नहीं सके?
नहीं \ कुछ दिनों बाद
देखे मैंने ढेर राख के
जिन में शायद दबी थीं कुछ हड्डियाँ
कुछ नर-कंकाल ।
फिर कुछ आँकड़े देखे
कुछ ब्यौरे सुने
चश्मदीद ।
उन दिनों मैं पिता की शरण में था
उस पिता की, जो सब का था
और उन की वसीयत में
खोज रहा था अपना हिस्सा