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दिल्ली दिल और दिसंबर-दिसंबर / दीपिका केशरी
Kavita Kosh से
यहां पिता का स्पर्श नहीं बचता
भाई की बेरुखी पुरानी है इस शहर से,
कुछ रिश्तों के संवाद
मौन की ओढ़नी ओढ़ लेती है
इस शहर में,
दिल्ली में दिल के झमेले है
थपेड़े हैं
पुराने इश्क का इत्र भी यहाँ
नई शीशी में बिकता है !
सुनो
ये दिल्ली भी दिसंबर की बेरूखी अपनाता है
ठीक वैसे ही जैसे एक दूसरे शहर से आई लड़की
यहांँ आकर दिल्ली हो जाती है !