दिल्ली में हैं तो क्या हुआ / लीलाधर जगूड़ी
हम दिल्ली में हैं तो क्या हुआ
दिल्लीवालों की खुशियाँ दिल्ली से बाहर हैं
दिल्ली वालों की खुशियाँ दिल्ली से दूर हैं
कलकत्तावालों की तरह कलकत्ता से बाहर
लखनऊवालों की तरह लखनऊ से बाहर
मद्रासवालों की तरह मद्रास से बाहर हैं
तमाम खुशियाँ
दिल्लीवालों की खुशियाँ समुद्र जितनी दूर हैं
मद्रासवालों की खुशियाँ हिमालय जितनी दूर
कलकत्तावालों की खुशियाँ गंगोत्री जितनी दूर हैं
जैसे उत्तरकाशीवालों की खुशियाँ
सहारनपुर के आस-पास से ही कहीं शुरू हो जाती हैं
इसमें कोई अचरज नहीं कि देहरादूनवालों की खुशियाँ
केरल के किसी नारियल के पेड़ पर हों
दिल्लीवालों की राष्ट्रीय राजधानीनुमा खुशियाँ
देश की प्रांतीय राजधानियों में हैं
दिल्लीवालों की कुछ नागरिक खुशियाँ
यूपी के नानपारा पावर हाउस में हैं
कुछ खुशियाँ पंजाब की सिंचाई नहरों में हैं
दिल्ली जिस दोने में खाती है उसे खुद नहीं बनाती
कानुपर में जो खुशियाँ हैं वे कानपुरवालों की नहीं है
मदुरै के कपड़ा मिलों की खुशियाँ
बंबई के थोक बाजार में हैं
और थोक बाजार की खुशियाँ चाँदनी चौक में
भोपाल की खुशियाँ ताल में नहीं तेंदू पत्ते में हैं
छत्तीसगढ़ और विलासपुरी मजदूरों में है
कोई अचरज नहीं कि
सब लोगों की खुशियाँ एक विराट बंजर में हों
बहुत से शहरों की बहुत सारी खुशियाँ
किसी छोटे से बीज में कैद हों
जो किसी कोठार में ही छूट गया हो
भीतर की सारी खुशियाँ बाहर के दाना-पानी में हैं
हमें अपने में होते हुए अपने से दूर भी होना है
जो हुआ सो हुआ बिसूरना भी है
दिल्ली में हैं तो क्या हुआ