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दिल-बर से दर्द-ए-दिल न कहूँ हाए / 'ताबाँ' अब्दुल हई

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दिल-बर से दर्द-ए-दिल न कहूँ हाए कब तलक
ख़ामोश उस के ग़म में रहूँ हाए कब तलक

उस शोख़ से जुदा मैं रहूँ हाए कब तलक
ये ज़ुल्म ये सितम मैं सहूँ हाए कब तलक

रहता है रोज़-ए-हिज्र में ज़ालिम के ग़म मुझे
इस दुख से देखिए कि छुटूँ हाए कब तलक

आई बहार जाइए सहरा में शहर छोड़
मुज को जुनूँ है घर में रहूँ हाए कब तलक

ज़ालिम को टुक भी रहम मेरे हाल पर नहीं
'ताबाँ' मैं उस के जौर सहूँ हाए कब तलक