दिल इधर तो कभी उधर जाए!
नाव तूफ़ा में है, किधर जाए!!
मैं ग़ज़ल की हदों में ठहरा हूँ,
वक़्त कब आये, कब गुज़र जाए!
आँख पर चढ़ गया है वो मेरी,
क्या पता, दिल में कब उतर जाए!
ऊंची परवाज़ पर परिन्दा है,
वक़्त किस लम्हा पर कतर जाए!
उन से बिछड़े तमाम उम्र गयी,
चोट है, जाने कब उभर जाए!
जिस से निस्बत नहीं है कुछ मुझ को,
बेरुख़ी उस की, क्यों अखर जाए!
अब तो ‘सिन्दूर’ ये भी वश में नहीं,
बात बिगड़ी, यहीं ठहर जाए!