भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल कहीं, और कहीं नज़र रख के / श्याम कश्यप बेचैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल कहीं, और कहीं नज़र रख के
मिलिए ख़ुद को न बेख़बर रख के

कैसे कह दें कि घर से बाहर हैं
घर से निकले हैं सर पे घर रख के

सो रहे हैं मेरी सदी के लोग
नाग की कुण्डली में सर रख के

ख़ुद को ऐसा पड़ा हुआ पाया
चल दिया हो कोई दिगर रख के

कहिए तो सब्ज़बाग़ दिखलाएँ
शबनमों से जुबान तर रख के

बेवज़न बोल के मत हों हल्के
गुफ़्तगू कीजिए बहर रख के