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दिल का छाला / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

गईं चरने कितनी आँखें।
बँधी है बहुतों पर पट्टी।
अधखुली आँखें क्यों खुलतीं।
बनी हैं धोखे की टट्टी।1।

किसी से आँसू छनता है।
किसी में है सरसों फूली।
देख भोला भाला मुखड़ा।
आँख कितनी ही है भूली।2।

रही सब दिन कोई नीची।
नहीं ऊँची कोई होती।
आँख कोई अंगारा बन।
आग ही रहती है बोती।3।

मचलती मिलती है कितनी।
अंधेरा कितनी पर छाया।
दिखाई ऐसी भी आँखें।
पड़ा परदा जिन पर पाया।4।

नहीं मिलते आँखों वाले।
पड़ा अंधों से है पाला।
कलेजा किसने कब थामा।
देख छिलते दिल का छाला।5।