दिल की कभी सुनी नहीं शायद इसीलिये
करता है अनसुनी नहीं शायद इसीलिये
जो वक्त पे पहुँचा नहीं पायीं न मंजिलें
इतना है वो गुनी नहीं शायद इसीलिये
खुद ही रहा समेटता बाँटा नहीं कभी
खुशियाँ हैं चौगुनी नहीं शायद इसीलिये
पत्थर हमे कहते हैं लोग राहे मुहब्बत
हम ने कभी चुनी नहीं शायद इसीलिये
ठिठुरा है तन बदन हैं चलीं सर्द हवायें
है धूप गुनगुनी नहीं शायद इसीलिये
हैं नफ़रतों के दौर बिरहमन या शेख ने
चादर कभी बुनी नहीं शायद इसीलिये
गिरते रहे फिसल के बार बार राह में
राहें हैं बे गुनी नहीं शायद इसीलिये