दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
याद आती है बात बाबा की
उसकी तासीर , आँवलों जैसी
बाज़ आ जा, नहीं तो टूटेगा
तेरी फ़ितरत है आईनों जैसी
ज़िन्दगी के सवाल थे मुश्किल
उनमें उलझन थी फ़लसफ़ों जैसी
जब कभी रू—ब—रू हुए ख़ुद के
अपनी सूरत थी क़ातिलों जैसी
तू भी ख़ुद से कभी मुख़ातिब हो
कर कभी बात शायरों जैसी
ख़ाली हाथों जो लौट जाना है
छोड़िए ज़िद सिकंदरों जैसी
ज़िन्दगानी कड़कती धूप भी थी
और छाया भी बरगदों जैसी
आपकी घर में ‘ द्विज ’ करे कैसे
मेज़बानी वो होटलों जैसी