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दिल की दहलीज़ पे टकटकी रह गई / सूरज राय 'सूरज'

दिल की दहलीज़ पर टकटकी रह गई.
आँख जैसे खुली थी थमी रह गई॥

बन्दिशों में ज़माने की वह बन्ध गया
बांह मेरी उसे ताकती रह गई॥

वो गया लब मेरे कांपते रह गए
लाश मिट्टी में कोई दबी रह गई॥

साथ बीवी के बेटा शहर चल दिया
माँ नज़र से सड़क नापती रह गई॥

जिस्म जलता न जलता कोई ग़म न था
याद लेकिन कोई अधजली रह गई॥

साफ़ इतना किया आईने घिस गए
धूल चेहरे पर लेकिन जमी रह गई॥

ज़लज़ले से शह्र तो उबर जाएगा
ज़हनो-दिल में मगर थरथरी रह गई॥

कृष्ण ने ये सुदामा को भेजी ख़बर
अब किताबों में ही दोस्ती रह गई॥

आज कविताओं को खा रहे चुटकुले
पोंछने को मुंह अब शायरी रह गई॥

न सवेरा हुआ न ही "सूरज" उगा
बर्फ़ तारीकियों की जमी रह गई॥