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दिल के आँगन में कोई फूल खिला है शायद / साग़र पालमपुरी

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दिल के आँगन में कोई फूल खिला है शायद
आज फिर उसने मुझे याद किया है शायद

मेरे आने का गुमाँ उसको हुआ है शायद
वो मेरी राह कहीं देख रहा है शायद

एक वो शख़्स कभी जिससे मुलाक़ात न थी
मेरे हर ख़्वाब की ताबीर बना है शायद

उसको हर चंद अँधेरों ने निगलना चाहा
बुझ न पाया वो महब्बत का दिया है शायद

जो कभी अहद—ए—जवानी में हुआ था सर ज़द
ग़म उसी जुर्म—ए—महब्बत की सज़ा है शायद

ज़ीस्त वो शब है कि काटे नहीं कटती ‘साग़र’!
है सहर दूर अभी एक बजा है शायद.