दिल के दरिया में चाँद जब उतरा / विजय 'अरुण'
दिल के दरिया में चाँद जब उतरा, प्यार में क्या ही कसमसाता था
हाथ लहरों के गुदगुदाते थे और वह खिलखिलाए जाता था।
देख लीजे कि मैं वही तो हूँ, आप की नींद जो उड़ाता था
नींद आ जाए भी तो मैं ही था, आप के ख़ाब में जो आता था।
याद आता है एक दीवाना, रंज में भी जो मुसकुराता था
जो किसी और की ख़ुशी के लिए, क्या ही ख़ुशियों के गीत गाता था।
हाथ ज़ख़्मी तिरे भी मेरे भी, रोज़ होते थे फ़र्क ये है मगर
ख़ार औरों की राह में प्यारे, तू बिछाता था मैं हटाता था।
मेरी उम्मीद का वह शहज़ादा, ढूंढने को हसीन शहज़ादी
चान्द तारों की सरज़मीनों तक, रोज़ जाता था, रोज़ आता था।
अब मुहज़्ज़ब<ref>सभ्य</ref> है आदमी यारो! खुल के हंसता न खुल के रोता है
दूर जाता था अपनी फ़ितरत से, कब मगर इतनी दूर जाता था।
वो गुनहगार था न राहिब<ref>संसार को छोड़ कर एकान्त में रहने वाला</ref> था, वह ख़ुदा भी नहीं था ऐ यारो!
फिर भी अब तक ये राज़-राज़ रहा, क्यों वह दुनिया से मुँह छुपाता था।
सच कहूँ हुस्न, हुक्मरान या हक़, ये न थे जो मुझे नचाते थे
इन की सूरत में था कोई जो और वह था ज़र जो मुझे नचाता था।
शह्र में है तो नाम दरिया है, गाओं में था तो आबशार<ref>झरना</ref> था नाम
वो जो अब सिर्फ़ गुनगुनाता है, कभी ऊंचे सुरों में गाता था।
क्यों जवां हो गई मिरी क़िस्मत, ऐसी रूठी है मानती ही नहीं
इस की तो बच्चों जैसी फ़ितरत थी, मान जाती थी जब मनाता था।
तू तो राज़िक़<ref>रोज़ी देने वाला</ref> है ऐ ख़ुदा-ऐ-मन<ref>मेरे ख़ुदा</ref>, फिर भी देखा नहीं कि क्यों ये 'अरुण'
जिस को होना था वक़्फ़े फ़िक्रे सुख़न<ref>काव्य चिन्तन को समर्पित</ref>, फ़िक्रे रोज़ी में सर खपाता था।