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दिल के लिए दर्द भी रोज़ क्या चाहिए / नासिर काज़मी

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दिल के लिए दर्द भी रोज़ क्या चाहिए
ज़िन्दगी तू ही बता कैसे जिया चाहिए

मेरी नवाएं अलग मेरी दुआएं अलग
मेरे लिए आशियाँ सबसे जुदा चाहिए

नर्म है बर्गे-समन गर्म है मेरा सुख़न
मेरी ग़ज़ल के लिए ज़र्फ़ नया चाहिए

सर न खपा ए जरस मुझको मेरी दिल है बस
फ़ुर्सते-यक-दो-नफ़स मिस्ले-सबा चाहिए

बाग तेरा बागबां तू है एब्स बदगुमां
मुझको तो ऐ मेहरबाँ थोड़ी सी जा चाहिए

ख़ूब हैं गुल फूल भी तेरे चमन में मगर
सहने-चमन में कोई नग़मासरा चाहिए

है यही ऐने-वफ़ा, दिल न किसी का दुखा
अपने भले के लिए सबका भला चाहिए

बैठे हो क्यों हार के साये में दीवार के
शायरो, सूरतगरो कुछ तो किया चाहिए

मानो मेरी 'काज़मी' तुम हो भले आदमी
फिर वही आवारगी कुछ तो हया चाहिए।