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दिल तो क्या रूहे-फ़र्ज़ को भी शर्मा गई / नक़्श लायलपुरी
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दिल तो क्या रूहे-फ़र्ज़ को भी गर्मा गई।
ज़हन का दर खुला तो ग़ज़ल आ गई।
छनछनाते हुए घुँघरुओं की सदा,
ऊँघती रहगुज़ारों को चौंका गई।
अपनी साँसों की ख़ुशबू लगे अजनबी,
मुझ पर तेरे बदन की महक छा गई।
आज लौ दे उठे फिर मेरे ज़ख़्मे-दिल,
आज बरसों में फिर तेरी याद आ गई।
इक बचाओ, बचाओ की सहमी सदा
बेबसी बन के एहसास पर छा गई।
मौत और ज़िन्दगी क्या हैं इसके सिवा
इक कली खिल गई एक मुरझा गई।
’नक़्श’ है वह नज़र दिल की दीवार पर
मुझको देकर जो ज़ख़्मे - तमन्ना गई।