भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल दबा जाता है कितना / अकबर हैदराबादी
Kavita Kosh से
दिल दबा जाता है कितना आज ग़म के बार से
कैसी तंहाई टपकती है दर ओ दीवार से
मंज़िल-ए-इक़रार अपनी आख़िरी मंज़िल है अब
हम के आए हैं गुज़र कर जादा-ए-इंकार से
तर्जुमाँ था अक्स अपने चेहरा-ए-गुम-गश्ता का
इक सदा आती रही आईना-ए-असरार से
माँद पड़ते जा रहे थे ख़्वाब-तस्वीरों के रंग
रात उतरती जा रही थी दर्द की दीवार से
मैं भी 'अकबर' कर्ब-आगीं जानता हूँ ज़ीस्त को
मुंसलिक है फ़िक्र मेरी फ़िक्र-ए-शोपनहॉर से.