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दिल दुखाए कभी, जाँ जलाए कभी / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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दिल दुखाए कभी, जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी, वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ?

हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रक्खुँ तो क्यों कर जियूँ?
ये शबे-इम्तिहां और ये सोज़े-दूरूं, खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ?

मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं, पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं! मैं शराबी नहीं! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ?

सोज़े-हर दर्द है, साज़े-हर आह है, गाह बे-कैफ़ हूँ सरखुशी गाह है
मेरी हर आह में इक निहाँ वाह है, इश्क़ जादू जगाए तो मैं क्या करूँ?

कुछ ये खुद-साख़्ता अपनी मजबूरियाँ, कुछ ज़माने की सौगा़त मेह्जूरियाँ
और उस पर कि़यामत की ये दूरियाँ,चैन इक पल न आए तो मैं क्या करूँ?

मुझको दुनिया से कोई शिकायत नहीं, झूठ बोलूँ मिरी ऐसी आदत नहीं
ये हक़ीक़त है यारो! हिकायत नहीं, बे-सबब वो सताए तो मैं क्या करूँ ?

ज़हमते - ज़ीस्त है, दौर-ए-अय्याम है, ना-मुरादी मिरा दूसरा नाम है
क्यों ग़मे-मुस्तक़िल मेरा अन्जाम है,जब क़ियामत ये ढाए तो मैं क्या करूँ?

ख़ुद ही मैं अक़्स हूँ, ख़ुद ही आईना हूँ, मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ! छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ ये ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ?

शायरी मेरी ’सरवर’ ये तर्ज़े-बयाँ, ये तग़ज़्ज़ल, तरन्नुम, ये हुस्ने-ज़बाँ
सब अता है ज़हे मालिक-ए-दो जहाँ! गर किसी को न भाए तो मैं क्या करूँ?