भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल दुखाती थी जो पहले, दिल को रास आने लगी है
Kavita Kosh से
दिल दुखाती थी जो पहले, दिल को रास आने लगी है
अब उदासी रफ़्ता-रफ़्ता दिल को बहलाने लगी है
फिर मचल उट्ठी तमन्ना देखकर रंगीन मंज़र
फिर ये तितली कागज़ी फूलों पे मंडराने लगी है
अब उडेगी धीरे-धीरे फूल और पत्तों से शबनम
पौ फुटी है, दिन चढ़ा है, रात ढल जाने लगी है
लोक गीतों सी मिठास और गाँव की सी सादगी है
अब नई रंगत मेरे अशआर पर आने लगी है
क्यों जला रक्खा है मिट्टी के चराग़ों को 'ख़याल' अब
देख तो इन खिड़कियों से चाँदनी आने लगी है