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दिल पे रुकते हैं तीर क़ातिल के / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

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दिल पे रुकते हैं तीर क़ातिल के
फूट पड़ते हैं आबले दिल के

तौर बदले हुए हैं क़ातिल के
आज पुर्ज़े उड़ेंगे इस दिल के

हैफ़ तक़दीर उस सफीने की
डूब जाये तो पास साहिल के

रोज़ मिलते हैं दिल को ज़ख़्मे-नौ
रोज़ सीते हैं चाक हम दिल के

क्या करे कोई जख़्मे-दिल का इलाज
और होता है चाक ये सील के

लुट गया कारवां महब्बत का
मिट गये हैं निशान मंज़िल के

खूं रुलाया क़फ़स नसीबों को
सहने गुलशन में फूल ने खिल के

राह तकता है आपकी अंजान
दाग़ रौशन किये हुए दिल के।