दिल भी सुनसान इक गली सी है.
हर गुज़रती रज़ा डरी सी है
होश कुछ देर साथ रहना तू
बूँद इक आख़िरी बची सी है
बस्ती-ए-आरज़ू जली थी कभी
अब तो ख़ामोश संगदिली सी है
क़ब्र जैसा ही कुछ है सीने में
तेरी ख़्वाहिश जहाँ दबी सी है
मैं दिवानी न कैसे हो जाऊँ
उसकी तबियत ही सिरफिरी सी है
जब छुड़ाया था हाथ से दामन
शब अमावस पे ही रुकी सी है
मुझको पहचान वो गये थे कल
फिर से उम्मीद-ए-दिल जगी सी है
पाक "पूजा" या पाप कह लो तुम
हाँ..मुहब्बत तो बेख़ुदी सी है