भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल मन तो नहीं / भावना सक्सैना
Kavita Kosh से
जो दिल है
वो मन तो नहीं!
कि उड़ा करता है मन
पाखी-सा अलमस्त
चंचल निश्छल
पल में घूम आता है
कितनी सदियाँ,
पर्वतों से वादियों में
दौड़ता मचल-मचल
कभी गहरे नापता है
बीहड़ जंगल।
और दिल?
एक कब्रगाह है दिल
कि उसमें दफन हैं
दर्द के असंख्य पल
यादों की कब्रों पर
रोज़ डलता है
आंसुओं का नमक
यादें फिर भी गलती नहीं
हाँ इतना तो है
कि ये कब्रगाह है
शीशे का इक ताजमहल।
कि दर्द की मज़ारें भी
हुआ करती कोमल।
या फिर जो है ये दिल
है शमशान कोई
जिसमें सुलगते रहते हैं
ख्वाब कई रात और दिन
लौ ऊंची किया करते
अमरज्योति की मानिंद
के जलते भी हैं
सुलगते भी हैं
और आगे बढ़ने की
राह दिखाते भी हैं।
कि रूह है मन
तो रूह का लिबास है दिल