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दिल मेरा सोज़े निहां से उम्र भर बेताब था / अजय सहाब
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दिल मेरा सोज़े निहां से उम्र भर बेताब था
कश्ती ए दिल का मुक़द्दर पुरख़तर गिरदाब था
वां हलावत पी के भी वो यार शिकवा संज था
याँ रवां शिरयानों से इक दरिया ए तलख़ाब था
वां कि आरिज़ सुर्ख़ था रंगे तिला ए नाब से
याँ वफ़ूरे अश्क से मिज़गां मिरा सीमाब था
जैसे ढूंढे काफ़िरों में निकहते ईमां कोई
हासिल ए हक़ ,इस जहाँ में इस क़दर नायाब था
वां कि उसको नींद मिस्ले मग़फ़िरत हासिल रही
याँ कोई आज़ुर्दगी से ता क़ज़ा बेख़्वाब था
शेर ऐसे कह के भी हासिल मेरा गुमनाम है
वरना मेरा ये हुनर तो क़ाबिले अलक़ाब था