भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल लगाने की जगह आलम-ए-ईजाद नहीं / यगाना चंगेज़ी
Kavita Kosh से
दिल लगाने की जगह आलम-ए-ईजाद नहीं
ख़्वाब आँखों ने बहुत देखे मगर याद नहीं
आज असीरों में वो हँगामा-ए-फ़रियाद नहीं
शायद अब कोई गुलिस्ताँ का सबक़ याद नहीं
सर-ए-शोरीदा सलामत है मगर क्या कहिए
दस्त-ए-फ़रहाद नहीं तीशा-ए-फ़रहाद नहीं
तौबा भी भूल गए इश्क़ में वो मार पड़ी
ऐसे औसान गए हैं कि ख़ुदा याद नहीं
दुश्मन ओ दोस्त से आबाद हैं दोनों पहलू
दिल सलामत है तो घर इश्क़ का बर्बाद नहीं
फ़िक्र-ए-इमरोज़ न अंदेशा-ए-फ़र्दा की ख़लिश
ज़िंदगी उस की जिसे मौत का दिन याद नहीं
निकहत-ए-गुल की है रफ़्तार हवा की पाबंद
रूह क़ालिब से निकलने पे भी आज़ाद नहीं
ज़िंदा हैं मुर्दा-परस्तों में अभी तक 'ग़ालिब'
मगर उस्ताद ‘यगाना’ सा अब उस्ताद नहीं