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दिल लिया जिस ने बेवफ़ाई की / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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दिल लिया जिस ने बेवफ़ाई की
रस्म है क्या ये दिल रूबाई की

तजि़्करा सुल्ह-ए-गै़र का न करो
बात अच्छी नहीं लड़ाई की

तुम को अंदेशा-ए-गिरफ़्तारी
याँ तवक़्क़ो नहीं रिहाई की

वस्ल में किस तरह हूँ शादी-ए-मर्ग
मुझ को ताक़त नहीं जुदाई की

दिल न देने का हम को दावा है
किस को है लाफ़ दिल-रूबाई की

एक दिन तेरे घर में आना है
बख़्त ओ तालए ने गर रसाई की

‘शेफ़्ता’ वो कि जिस ने सारी उम्र
दीन-दारी ओ पारसाई की

आख़िर-ए-कार मै-परस्त हुआ
शान है उस की किब्रियाई की