भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल से अपने गम जमाने का लगाए बैठे हैं / मोहम्मद इरशाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दिल से अपने गम ज़माने का लगाए बैठे हैं
इक अलग ही अपनी दुनिया हम सजाए बैठे हैं

वो ही गर घर से ना निकले तो हमारा क्या कुसूर
हम तो उनके वास्ते पलकें बिछाए बैठे हैं

हम नहीं कहते किसी को हाले दिल अपना मगर
लोग कहते हैं कि हम क्या क्या छुपाए बैठे हैं

मैं ना पूछूँगा सबब उनसे ख़फा होने का अब
ख़ुद ही जब वो गैर को अपना बनाए बैठे हैं

जबके इस अन्जानी दुनिया में कोई उसका नहीं
किसके ख़ातिर फिर वो महफिल को सजाए बैठे हैं

इनका गर ‘इरशाद’ हो तो जान तक दे दें अभी
वो ही अपने होठों पे ताले लगाए बैठे हैं