भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल हैं पोशीदा बहोत मिसमार हैं / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
दिल हैं पोशीदा बहोत मिसमार हैं
आजकल चेहरे ही बस बाज़ार हैं
खुशबुएँ भी इस धुंए ने छीन लीं
फ़ूल गुलशन में हैं पर लाचार हैं
हाँ मिलावट ही मिलावट हर तरफ
हर तरफ बस आदमी बेज़ार हैं
एक सच्चा आदमी अनशन पे है
अब यहां बदलाव के आसार हैं
हम गरीबों के लिए कुछ भी नहीं
ख़ुद की ख़ातिर अहलेज़र दिलदार हैं
एक व्यापारी ने मुझको ये कहा
आप का लिखना सिया बेकार हैं