दिवासौ / मालिनी गौतम
दिवासौ — आषाढ़ महीने की कृष्णपक्षी अमावस्या को मेहनतकश वर्ग के द्वारा मनाया जाने वाला त्योहार, जिसके बाद त्योहारों का आगमन होता है और सौ दिन बाद दीवाली आती है।
जिनके महलों की रौशनी
चाक-चौबन्द लेती है टक्कर
चाँद-सूरज से,
जहाँ बारह मास बसेरा हो उत्सवों का
उनके कैलेण्डर में नहीं होता दिवासौ,
यह होता है
फानूस से टिमटिमाते घरों के पंचांग में,
आषाढ़ महीने के
कृष्णपक्ष की अमावस
दिवासौ है।
सफ़ाई वाले का लड़का विपुल
आज घर-घर घूमकर इकट्ठा करेगा
कच्चे चावल के अलग-अलग स्वाद,
कढ़ाही में उबलते दूध में
जब घुलेगी
बासमती, कृष्ण कमोद और कालीमूँछ की ख़ुशबू
घर की दीवार तक
अघाकर डकार लेगी ।
किसान की औरत
लिपे-पुते आँगन में
सूखी-गीली लकड़ियाँ सुलगाती
मिट्टी की हाण्डी में उबालेगी दूध-चावल,
चींटी-कीड़ा, चिड़िया-कौवा,
चूहा-बिल्ली, कुत्ता-छिपकली,
बच्चे-बूढ़े, पूर्वज, ग्राम-देवता
सब होंगे तृप्त आत्मा तक
पायस की मिठास में।
यहाँ तक कि अनचाहे मेहमान-सी
कई दिनों से घर में
डेरा डाले बैठी मक्खियाँ भी
हो जाएँगी विदा इस ब्रह्मभोज को चखकर।
मेहनतकश एकरंग जीवन में
सावन की फुहारों-सा होगा आगमन
विविधरंगी उत्सवों का,
और फिर ठीक सौ दिन बाद
गाते-बजाते आएगी दीवाली
मिट्टी के सकोरों में जगमगाती,
सौ-सौ सूरज के तेज को
स्वयं में समाती,
एक और नए बरस के क़दमों की आहट लिए।
दिवासौ नहीं है इन्तज़ार
सिर्फ़ सौ दिनों का
यह इन्तज़ार है
सघन अन्धकार में फड़फड़ाती
रौशनी की किताब को
अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ने का,
सुख की पहेली को
उसके अन्तिम हर्फ़ तक ढूँढ़ने का
और मेहनतकश हथेली में
अपने हिस्से के चमकते सूर्य को देखने का।