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दिशा-भरम / संध्या सिंह

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दुविधाओं की पगडण्डी पर
भटके जनम-जनम
जितने जीवन में चौराहें
उतने दिशा-भरम

धीरज, संयम और सबूरी
शब्द बहुत हैं हल्के
अधरों में जब पीर छुपाओ
आँखों से क्यूँ छलके

ऊपर-ऊपर बर्फ़ भले हो
भीतर धरा गरम
जितने मन में हैं चौराहें
उतने दिशा-भरम

सीधी समतल राह देखकर
चंचल मन मुड़ जाए
ऊँच-नीच पर उछल-कूद कर
मृग जैसा भरमाए

जितना बाहर तेज़ उजाला
उतना भीतर तम

भीतर पानी में कम्पन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अम्बर तक हो आई

मन की अपनी मुक्त छलांगे
तन के सख़्त नियम