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दिशि-दिशि घन अंधकार / रामगोपाल 'रुद्र'

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दिशि-दिशि घन-अन्‍धकार;
जाना है सिन्‍धु पार।

तरणी असफल अधीर,
ओझल हर ओर तीर,
फेंको प्रिय वह प्रकाश,
उतरे दृग में कगार!

अब तक तो लाज रही,
ज्यों-ज्यों यह नाव बही;
बल-मद सब छूट रहा,
बनकर अब जल-विकार।

झूठा भी यह गुमान
पा जाए सत्य मान,
तुम जो चाहो, उदार
हे मेरे कर्णधार!