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दिसंबर की धूप / रामदरश मिश्र

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नवंबर के उत्सवगंधी प्यारे-प्यारे गुनगुने दिन
दिसंबर के दिन बन गये-
शत से थरथराते हुए

मैं अपना मकान बनवा रहा था
तो काफी जगह खाली छोड़ दी थी-
धूप के लिए, हवा के लिए, पेड़ पौधों के लिए
मेरे कुछ वणिकमना हितैषियों ने
मुझे धिक्कारा था-
”यह क्या किया तुमने
इतनी खाली जगह में कई कमरे बन गए होते
काफी किराया मिलता“
मेरा गाँव-मन हँस कर रह गया था

तो जब दिसंबर आता था
सुबह-सुबह आँगन में, दरवाजे़ पर
प्यारी-प्यारी धूप फैल जाती थी
कहीं कुर्सी डालकर बैठ जाता था
धूप के गुनगुने स्पर्श से
तन पर एक ऊर्जा हँसने लगती थी
और मन में गुनगुनाने लगती थी कविता
प्यारी सहेली सी धूप से
मैं मौन भाव से बतियाता था
देर तक उसकी हँसी सी आभा में नहाता था
वह चली जाती थी तब भी
उसके होने की अनुभूति
तन-मन में भारी होती थी
रात की ठंडक भी
उसकी प्रतीक्षा से उष्म हो उठती थी
लेकिन अब पड़ोस का क्या किया जाय
दिन-रात उसमें बाज़ार बसता जा रहा है
किराये के लिए बनाए गये
कई-कई मंजिलों के बंद मकान
छाँह के बड़े-बड़े टीलों से
मेरे घर और धूप के बीच सिर उठाए खड़े हैं
अब थोड़ी देर के लिए
धूप मेरे दरवाजे़ पर आती है
कहती है-बहुत मुश्किल से आई हूँ
बंधु थोड़ी ही देर सही
आओ आत्मीय संवाद कर लें
और जी लें पहले के दिनों को
स्मृतियों में।
-9.12.2014