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दीआ / महेंद्र 'मधुप'

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दीआ अपना के ज़रा के
दोसरा के ईंजोर पहुँचबइअ
ई बात सब केउ जनइअ
अंतिम समय अबते-अबते
दीआ टिमटिमाए लगइअ
आ भभक जाइअ
आ जीवन परकास बाँटे वाला
दोसरा के रस्ता देखाबेवाला
अंत में ख़तम हो जाईअ
इहे जिनगी के खेल हए
ए दुनिया में जे अबइअ
ओकरा जाए के जरूर परइअ
ऊ कबो बच न सकइअ।
आदमी जब ए पर धेआन देइअ
त। दीन-दुखिआ के सेवा करइअ
ओकर समय अकारथ न जाइअ
जे आदमी समाज के लेल मरइअ
उहे आदमी, आदमी कहबइअ
बरइत दीआ इहे कहइअ।