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दीद के बदले सदा दीदा-ए-तर रक्खा है / सलीम फ़िगार

दीद के बदले सदा दीदा-ए-तर रक्खा है
हम को क्यूँ राँदा-ए-दरगाह-ए-नज़र रक्खा है

शब की दहलीज़ से उस सम्त हैं रहों कैसी
पर्दा-ए-ख़्वाब में ये कैसा सफ़र रक्खा है

साया-ए-वस्ल-ए-मोहब्बत की वो ख़ल्वत न सही
ये भी काफ़ी है ख़यालो में गुज़र रक्खा है

कितने औसाफ़ मुझे अपने अता उस ने किए
ज़ौक़-ए-तख़्लीक़ दिया मुझ में हुनर रक्खा है

शाख़-दर-शाख़ तिरी याद की हरियाली है
हम ने शादाब बहुत दिल का शजर रक्खा है

हर घड़ी मुझ पे नए और जहाँ खुलते हैं
सो भी जाऊँ तो खुला ज़ेहन का दर रक्खा है

उस को क़ुदरत है जिसे जैसा भी तख़्लीक़ करे
शुक्र है उस का मुझे उस ने बशर रक्खा है