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दीनक नेना / कालीकान्त झा ‘बूच’
Kavita Kosh से
देखहीं रौ बौआ, ई कौआ गबै छौ।
सुनहीं रौ तोरे, कुचरि सुनबै छौ।।
एम्हर तोँ सूतल छे माँझे ओसारपर,
ओम्हर ओ नाँचै पुबरिया मोहारपर,
पुरबा बसात बँसुरी बजबै छौ...।
सुनहीं रौ ...।।
तोरा लय बनलौ ने बिस्कुट आ चाॅकलेट,
नोनो रोटीसँ ने भरतौ ई गोल पेट,
बातक मधुर स्वरलहरी अबै छौ...।
सुनहीं रौ ...।।
बापे तोहर बनलौ परदेशी,
चिट्ठी ने एलौ भेलौ दिन बेशी,
माँक निनायल व्यथा जगबै छौ ।
सुनही रौ ...।।
की बुझबे ककरा कहै छै गरीबी,
सपनोमे सुख नहिं जतऽ श्रमजीवी,
लुत्ती लगा कऽ नगर बसवै छौ...।
सुनहीं रौ...।।
कोरामे तोरा सुताबै छौ बिनियाँ
झटकल औ अबिहेँ रौ, नूनूक निनियाँ,
तोहर उपास हमरा लजबै छौ,
सुनहीं रौ...।।