दीन भारत के किसान / गोपालशरण सिंह
कर रहे हैं ये युगों से
ग्राम में अज्ञात-वास,
अंग जीवन का बनी है
जन्म से ही भूख-प्यास,
किन्तु हरते क्लेश हैं निज
देश को कर अन्न-दान
दीन भारत के किसान ।
हैं सदा संतुष्ट रहते
क्लेश भी सहकर विशेष,
लोभ को न कदापि देते
चित्त में करने प्रवेश,
याचना करते नहीं रख
कर हृदय में स्वाभिमान
दीन भारत के किसान ।
विश्व परिवर्तित हुआ पर
ये बदलते हैं न वेश,
छोड़ते हैं ये नहीं निज
अंध-कूपों का प्रदेश,
बंद रखते हैं सदा किस
मोह से निज आँख-कान
दीन भारत के किसान ।
भूमि के हैं भक्त ये जो
नित्य देती अन्न-वस्त्र,
बैल है सम्पत्ति इनकी
और हल हैं दिव्य अस्त्र,
ज्ञान-वृद्धि हुई बहुत पर
रह गए भोले अजान
दीन भारत के किसान ।
घूमता है वारिदों के
साथ इनका भाग्य-चक्र,
रंग में इनके हृदय के
है रंगा सुरचाप वक्र,
यदि हुई पर्याप्त कृषि तो
हो गए सम्पत्तिवान
दीन भारत के किसान ।
हो रहा विज्ञान का है
विश्व में कब से विकास ?
पर न इनके पास अब तक
है पहुँच पाया प्रकाश,
देश की अवनत दशा पर
मोह वश देते न ध्यान
दीन भारत के किसान ।
देश में क्या हो रहा है
है इन्हें कुछ भी न ज्ञान,
है इन्हें दिखता न जग में
रुचिर नवयुग का विहान,
निज पुराने राग का बस
कर रहे हैं नित्य गान
दीन भारत के किसान ।
(काव्य-संग्रह 'ग्रामिका' से)