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दीन मजदूर / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’

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दीन मजदूरवन के काई बरनन करीं
कुछुओ बा कहलो ना जात।
जेकरा जिनिगिया में सुखवा सपन भइले
दुखवा के बडुए जमात।
रतिया बीतल सूते, रतिया रहत जागे।
हाय रे करमवाँ के दोष।
आध पेट रतियों में, आध पेट दिनवों में
खाई-खाई कर सन्तोष।
पेटवा में जेठवा के लूक धधकत बाटे
अँखिया में बसे बरसात।
रतिया रहत आवे घर के मलिकवा रे
कहे-‘‘भइल गरमी सवार।
निदिया टूटत नइखे रतिया अगर तोर
छोड़ दे तू कमवाँ हमार।’’
डाँटि-फटकारि जब चलले मलिकवा त
छउरे पीछे-पीछे बिललात।
हरवा उठाई कान्ह पर झट चलि जाला
गाँव के बधरिया के ओर।
हरवा चलावे, बात खेत के सुनावे सब
पोंछि-पोंछि अँखिया से लोर।
केई सूनी, केई बूझी दुखिया के छोड़ सब
दुखिया के मनवाँ के बात?
दिनवाँ चढ़त आये ओकरी मेहरिया रे
धरिया में लेई रोटी-नून।
एक जून मीले कहीं आध पेट रोटिया त
रहेला उपसा एक जून।
दुखवा के भार कबो कम नाहीं होखे तनी
रहे दिन चाहे रहे रात।
धमवाँ के अगिया में जरेला बदनवाँ रे
तबो जोते हर धरि धीर।
जेठ दुपहरिया में तपेला बदनवां रे
ढरके बदनवाँ से नीर।
बेरवा के गिरला प खोलि हल-बैल सब।
लेके धीरे-धीरे घर जात।
संझियां के बनिया उगाहे मजदूरवा रे
जाये जब मालिक-दुआर।
‘‘आज फुरसत नइखे, कल अइहे बेरा देखी’’-
मालिक कहले हर बार।
घरवा में लडि़का गदेलवन के असरा प
तिनके में पानी फिर जात।
हिय के दरद बनि अँखिया के पनिया रे
चुपके ढरकि बहि जाय।
हाय रे गरीबवा के आह कोई सूने नाहीं
जिनिगी में खाली हाय! हाय!
रूकले कलमिया गरीबिया के अगिया से
कविता के सरिता सुखात।
दुखवा बनल बा का सिरिफ गरीब खातिर
सुखवा कि लेले धनवान?
इहनी के दुखिया का नाहीं हउए, अबरू का
इहनी के नाहीं भगवान?
केहू त बतावे कब सुख के किरिन फूटी
बीती कब दुखवा के रात?
दीन मजदूरवन के काई बरनन करीं,
कुछुओ बा कहलो ना जात।