दीपक से - 2 / शिशु पाल सिंह 'शिशु'
सुन्दरी संध्या का सिन्दूर-निशाचारियों ने जब लूटा,
तभी 'तमसोमा ज्योतिर्गमय' किसी की वाणी से फूटा।
उस समय ही तो अनल-किरीट, शीश पर तुमने अपनाया,
कसौटी के अंचल में लगी, दमकने सोने की काया।
किन्तु तुम अन्त: पुर में लगे देखने, मन्मथ की माया,
जहाँ मनचली कली से एक अली मिलने को ललचाया।
चाह ने आलिंगन के लिये, भुजायें अपनी फैलाई,
रूप ने "हाँ-नाँ" मिश्रित लाज भरी मुद्रायें दिखलाई.
और तुम भी उस रस के लिये, हुई व्याकुल दीवानों से,
प्राण घायल कर डाले, पंच-बाण के कोमल वाणों से।
समझकर विप्रलम्भ-श्रृंगार—हुए पीड़ित अरमानों से,
मौत के परवानों को भूल, लगे मिलने परवानों से।
मुबारक मस्ती हो-पर याद रहे निशि भर ही जीना है।
और उषा आने तक तुम्हें, जहर काला ही पीना है॥