भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीपावली-97 / संजीव ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चुनता रहा
पुराने जूते, चप्पलें
पिछले कुछ वर्षों में
और उनका हार बना
गले में पहन लिया खुद ही।
मैं समझता था
उन टूटे, फटे जूतों, चप्पलों को
जोड़-जाड़कर
सी-सूकर
बना लूंगा अपने लायक
और...
लेकिन...!

पिछले कुछ वर्षों में
जो सपने मैंने देखे थे
उनकी बाती बना ली
जो अरमान संजोए थे
उनका तेल बना लिया
और धर दिया दरवाजे की मुंडेर पर
दीप जलने, लोगों को ठोकर से बचाने
आज दीवाली भी तो थी।

मैं अपने कमरे के एकांत में
सुलगता रहा अंधेरे में
बाहर जगमग रोशनी थी
पटाखों की आवाजें थीं
पटाखे सारे के सारे फटते थे
मेरे दिमाग में
मेरी चाहनाओं को चिंदियों में उड़ाते।

आखिर बरसों से कोई गीत
क्यों नहीं आ रहा मेरे होंठों पर
और क्यों मैं रात को अक्सर
सपना देखता हूं मरे हुए घोड़ो का?
किसने टांग दिया है मुझे हवा में
बांस के सहारे
बिजूके की मानिंद?
किताबों में खुद को खो देने की जिद भी आखिर
पूरी क्यों नहीं हो पाती?
और किताबों के सभी शब्दमुझे
‘नफरत-नफरत-नफरत’
क्यों लगते हैं?...

मेरे घर किसी की मृत्यु नहीं हुई है भाई,
अरमान मरे हैं मेरे।
मैंने समझ लिया था कि
सूर्य की किरणों पर होकर सवार
पहुंच गया हूं मंजिल पर
मंजिल इतनी घिनौनी हो सकती है
इसकी कल्पना नहीं की थी मैंने!

नहीं, मैं यह नहीं कहता कि
फूल सुन्दर नहीं होते हैं
लेकिन सभी फूल सुंदर ही होते हैं
यह कौन कह सकता है?
और फिर तब, जब आपको मिली हो
टुटी-पुरानी चप्पलें, नाकाम जूते...।

ओफ्फ!
आकाश की तमन्ना की थी मैंने,
भूल गया था-
शून्य होता है आकाश!

सारी दुर्घटनाओं की जड़
मैं ही हूं श्रीमान!
मैं नहीं होता तो
कोई हादसा नहीं होता!!

वह घड़ी होगी कितनी मनहूस
जब मैं पैदा हुआ हूंगा?
बिना किसी जरूरत के मैं
आन टपका।

आखिर उपाय क्या है?
क्या है निदान?
इतनी चलती है गोलियां
इतनी उलटती हैं गाड़ियां
इतने फटते हैं बम-
कहीं मैं क्यों नहीं होता?...

माफ करना मित्रगण!
कभी मैं दिया करता था
हर हाल में जिंदा रहने का उपदेश!
मैं अपना उपदेश वापस लेता हूँ
अब मैं आत्महत्या को
कायरता नहीं मानता।